Wednesday, September 29, 2010

भावुक और संवेदनशील इन्सान

जुहू का उनका बंगला, प्लॉट नम्बर बाइस, रोड नम्बर ग्यारह।
यहाँ आते हुए शायद बारह से अधिक साल हो गये होंगे, जितना स्नेह और प्यार मिला, हमेशा यही लगा कि अपने पिता से मिलना हो रहा है। सच कहूँ, शायद ऐसा कोई फीता आज तक न बना होगा जो धरम जी का दिल नाप सके, ऐसा विशाल हृदय है उनका। जब पहली बार मिलना हुआ था तो उस बड़े से कमरे में दिल धडक़-धडक़ कर जैसे बाहर आ जाना चाह रहा था। व्याकुलता हो रही थी। कल्पना हो रही थी, किस तरह एकदम से आयेंगे, कैसे मिलेंगे, क्या कहेंगे, वगैरह वगैरह।

राजा जानी, जुगनू, हुकूमत, शोले आदि तमाम फिल्मों की ट्राफियाँ और स्मृति चिन्ह को देख-देखकर मुग्धता बढ़ रही थी। मन उस पदचाप को सुनने को बेताब हो रहा था, जो उनकी होगी, जो दरवाजे तक आकर खत्म हो जायेगी और सामने होंगे वे। आखिरकार ऐसा ही हुआ। पदचाप ने ही एकाग्र किया, आहट हुई और वे कमरे मे ऐसे मुस्कराते हुए दाखिल हुए जैसे पहले से पहचान हो। बहुत स्नेह से बातें कीं। बचपन से ही उनका प्रशंसक होने के कारण जितनी जिज्ञासाएँ, जितनी अनुभूतियाँ और जितने इम्प्रेशन मन में थे, सब एक-एक करके कहने के अवसर आये। धरम जी ने सब कुछ तो बताया। उनकी फिल्मों को लेकर, विशिष्टï किरदारों को लेकर, कुछ खास सीन और उनके तेवर को लेकर की गयी बातें उन्हें बहुत अच्छी लगी थीं। जो आत्मीयता उस समय स्थापित हुई उसकी रक्षा ईश्वर आज तक कर रहे हैं। यह सच है, धरम जी बहुत भावुक और संवेदनशील इन्सान हैं।

मायानगरी में लगभग पचास साल अर्थात आधी सदी की लगातार उपस्थिति, यश, समृद्घि, लोकप्रियता और प्यार ने इस भोले और बड़े दिल के आदमी को जरा भी नहीं बदला है। धरम जी एक ऐसे महानायक हैं जो अपने मुरीदों के लिए जान छिडक़ते हैं, उनकी उम्मीदों को कभी नहीं टूटने देते। वे एक ऐसे दरवेश की तरह हैं जिनकी सहृदयता और उपकार के किस्से हजार होंगे मगर दिखावा जरा भी नहीं।

धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म मे उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। कई बार यह भी होता था कि जिस फिल्म को वे पहले देख चुके होते थे, उसको देखने उनके परिवार का कोई सदस्य जाता था, तो उसके साथ भी जाने की जिद करते थे। नहीं ले जाया जाता था, तो पीछे-पीछे चलने लगते थे। आखिरकार ले जाये जाते थे।

उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। सिनेमा हॉल के भीतर फिल्म प्रदर्शन की जादूगरी बचपन में उनके भीतर कौतुहल पैदा करती। वे सोचते थे कि कैसे एक जगह से रोशनी निकलकर परदे पर गिरती है और तमाम लोग चलते-फिरते दिखायी देने लगते हैं। ऐसी पहेलियों और जिज्ञासाओं ने धर्मेन्द्र के मन में फिल्मों के प्रति आकर्षण को काफी बढ़ाने का काम किया।

धर्मेन्द्र आजादी के पहले जन्मे थे। बचपन में प्रभात फेरियों में जाना उनको खूब याद है। उनके पिता केवल कृष्ण देओल कट्टïर आर्य समाजी थे, सख्त भी। वे अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। जो बात भी उनको कहनी होती वाया माँ ही कहते थे। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। उनकी बात करते हुए धर्मेन्द्र बहुत भावुक हो जाते हैं। वे बतलाते हैं कि माँ से मैं अक्सर अपने इस सपने के बारे में कहता था कि मुझे फिल्मों में काम करना है, हीरो बनना है।

उस समय मैं अभिनेता श्याम और दिलीप कुमार का बड़ा फैन था। भोली भाली माँ तब अक्सर मुझसे कह दिया करती, बेटा अरजी भेज दे। अब माँ को क्या पता कि यह काम अरजी भेजकर नहीं मिलता, लेकिन उनके नितान्त भोलेपन के पीछे की सद्इच्छा और आशीर्वाद ने ही मुझे प्रेरित किया। मैं तब अक्सर पास के रेल्वे स्टेशन पैदल जाकर फिल्म फेयर ले आया करता था। उसमें फिल्मी सितारों के चेहरे देखकर रोमांचित हुआ करता था।

एक बार एक अंक में नये सितारों की जरूरत का विज्ञापन निकला था और उसमें नये चेहरों की आवश्यकता का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। मेरे एक मित्र ने मुझे वो फिल्म फेयर लाकर दिया था। जब उसने यह बात बतायी तो एकबारगी मन को लगा जैसे माँ का कहा ही सच होने जा रहा है। मैंने माँ के ही आशीर्वाद से तब अपनी अरजी भेज दी थी।

2 comments:

  1. सुनील जी,
    धर्मेन्द्र जी की पुरानी फिल्में मुझे बेहद पसंद है| शायद अहम् वज़ह ये हो कि सुना था कि उनको फिल्मों में लाने का श्रेय अदाकारा और शायरा मीना कुमारी का रहा है| और जिसे मीना कुमारी ने पसंद किया उसे तो मैं करुँगी हीं| धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी की जोड़ी हो तो बस बिना सोचे सिनेमा देखने चल देते थे हम|
    यूँ आज तक जिससे भी सुना सबने कहा कि ''शोले'' बहुत पसंद है और लोगों ने इसे देखने के कई रिकॉर्ड तोड़े| लेकिन मेरे लिए आश्चर्यजनक है कि मुझे ये फिल्म कभी भी न पसंद आई, न कम उम्र में न अब, शायद सिनेमा की समझ की कमी हो मुझमें, और उसके बाद से हीं धर्मेन्द्र के प्रति वो आकर्षण न रह गया|
    पुराने ज़माने के धर्मेन्द्र के क्या कहने, शायद उनसा गरिमामय व्यक्तित्व वाला मुझे और कोई न लगता था| काफी अरसे के बाद ''मेट्रो''( सिनेमा) में उनको देखकर वैसी हीं ख़ुशी हुई जो पहले होती थी|
    आपके इस ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा, उनके बारे में और भी गहराई से जानने को मिलेगा|
    शुभकामनाएं!

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  2. जेन्नी,
    हमारे निमंत्रण और अनुरोध पर आप यहाँ आयीं, मैं हार्दिक आभारी हूँ। आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर अच्छा लगा। मेरे टिप्पणी का पहला भाग है यह जो आपने शायद पढ़ा होगा। यह क्रमशः आगे बढ़ेगा। "शोले" को लेकर आपकी राय से मुझे हँसी आई। इस ब्लॉग में मैं ज़रूर जल्द एक टिप्पणी लिखूंगा, जिससे शायद आप इस फिल्म को पुनः देखना चाहें और सराहना भी।
    सादर-सुनील मिश्र

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