Saturday, October 16, 2010

जिद के पक्के धर्मेन्द्र

अरजी भेजने के बाद धर्मेन्द्र उस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें बुलाया जाता। समय गुजरता रहा। उनके हिसाब से तो यह काम तुरन्त ही हो जाना था मगर देश भर से आवेदन बुलाये गये थे। कई स्तरों पर बायोडेटा छाँटे भी गये मगर यह किस्मत की कहानी ही कह सकते हैं कि अन्तिम रूप से बुलाए जाने के लिए चयनित नामों में धर्मेन्द्र का नाम भी शामिल था।

वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर मुम्बई आये। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्तजाम के साथ बुलाया गया था। फिल्म फेयर कलाकार की खोज कॉन्टेस्ट मे उनका आना और चयनित होना भी सचमुच माँ के आशीर्वाद का ही नतीजा था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है।

चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र की पर्सनैलिटी कसरती जवान की सी थी। चीते के पंजे की तरह उनके हाथ, चौड़ा सीना, सख्त और सम्मोहन मसल्स और मछलियाँ देखकर दबी जुबान से लोग उन्हें पहलवानी का परामर्श भी देते थे। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था, कि अब आ गया हूँ तो वापस नहीं जाऊँगा, यहीं कुछ करके दिखाऊँगा।

ऐसे ही स्टुडियो के चक्कर लगाते, यहाँ से वहाँ आते-जाते उन्हें कई बार अर्जुन हिंगोरानी टकरा जाया करते थे। तब वे भी हीरो बनने के लिए प्रयास कर रहे थे। अर्जुन हिंगोरानी से बार-बार आमना-सामना होने से एक दूसरे से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ, फिर दोस्ती हो गयी। दोनो अपने संघर्ष और किस्से आपस में बाँटा करते। एक बार अर्जुन हिंगोरानी ने धर्मेन्द्र से कहा, यदि मैं हीरो न बन पाया तो फिल्म बनाना शुरू कर दूँगा और यदि मैं फिल्म बनाऊँगा तो हीरो तुम्हें ही लूँगा।

समय और संयोग अपनी रफ्तार से जैसे इसी योग की तरफ प्रवृत्त हो रहे थे। एज ए हीरो, अर्जुन को फिल्में नहीं मिली और वे निर्माता-निर्देशक बन गये। उन्होंने पहली फिल्म शुरू की दिल भी तेरा, हम भी तेरे। अर्जुन ने अपने वचन का पालन अपने दोस्त से किया और धर्र्मेन्द्र को हीरो के रूप में साइन किया। उस समय साइनिंग अमाउंट इक्यावन रुपए था और साथ में थीं, चाय, नाश्ते की सुविधाएँ। यह फिल्म बनी और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को मिली सफलता ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे सितारे की आमद की थी जो अपनी पूरी शख्सियत में नितान्त नैतिक, विश्वसनीय और अपना सा नजर आता था।

पहले से ही तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति में यदि धर्मेन्द्र ने दर्शकों को प्रभावित किया तो उसके पीछे उनकी इसी छबि, इसी पर्सनैलिटी का योगदान था। परदे पर किरदार निबाहते हुए उनका संवाद बोलना, हँसना-मुस्कराना और विशेष रूप से रूमानी दृश्यों में अपनी आँखों के सम्मोहक इस्तेमाल को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया। उन पर फिल्माए गीतों में उनको अभिनय करते देखना, उनका गाते हुए चलना या कह लें चलते हुए गाना एक अलग ही किस्म के रोमांटिसिज्म को स्थापित करने मे सफल होता था।

2 comments:

  1. ''shole'' mein aisa kya thaa aajtak samajh na saki. aapke article se shayad ab cinema ki samajh aaye. waise dharam ji mere favourite hero hain to unke baare mein padhna achha lag raha. shesh aapke agle post ke intzaar mein...

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  2. धन्यवाद जेन्नी जी.

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