Wednesday, December 15, 2010

धरम पा के जन्मदिन पर

रंगत कुछ अलग नजर आ रही थी इस बार उनके घर की। जन्मदिन के अलावा भी वक्त-वक्त पर उनके घर जाते हुए, मिलते बात करते हुए शायद अब पन्द्रह से अधिक वर्ष होते आ रहे हैं। बंगले के बाहर तमाम लोग, भीतर भी खूब सारे। बहुत से ऐसे जो उनके प्रिय परिचित बरसों के रिश्तों और अनुभवों से बंधे, अपनी तरह से आ रहे थे, जा रहे थे। इन सबके साथ थे ढेर सा प्रशंसक, मित्रों के साथ, परिवारों के साथ। सभी में गजब का क्रेज।

सोफे पर धर्मेन्द्र बैठे हुए। उनके आसपास घेरे बैठे लोग, आगे-पीछे बैठे लोग, जिनको जहाँ जगह मिले, जमे हुए लोग, सब के सब खुश। धर्मेन्द्र सबकी हर आकांक्षा पूरी कर रहे हैं। आटोग्राफ, फोटो जो और जितनी। बीच-बीच में कई मुरीदों के मोबाइल के कॉलर टोन में, पैंतीस वर्ष पहले की फिल्म प्रतिज्ञा का एक ही सा बजता गाना, मैं जट यमला पगला दीवाना। इसी नाम की उनकी एक फिल्म अगले महीने रिलीज हो रही है 14 जनवरी को। सनी और बॉबी भी साथ में हैं इस फिल्म में।

धर्मेन्द्र बताते हैं कि अपने में हम तीनों ने मिलकर परिवारों को खूब भावुक किया था, रुलाया था, अब हमने सोचा, हम तीनों मिलकर, जमकर हँसाते हैं, सो यमला पगला दीवाना आ रही है। वे कहते हैं कि बहुत प्यारी फिल्म बनी है। अपनी तरह की कॉमेडी है मगर हास्य से भरे दृश्य भी बड़े कठिन। पंजाब से लेकर महेश्वर, मध्यप्रदेश तक इस फिल्म की शूटिंग हुई है। धर्मेन्द्र के लिए विभिन्न फिल्मों में सरदार जी का गेटअप बड़ा लकी रहा है। सनी भी गदर में तारा सिंह बने थे।

यमला पगला दीवाना में तीनों का यही गेटअप है। रोचक चरित्रों का निर्वाह किया है और खास बात यह कि इस फिल्म में धर्मेन्द्र की शोले से लेकर प्रतिज्ञा तक सबको, दिलचस्प ढंग से याद किया गया है। प्रतिज्ञा, पिछली सदी में पचहत्तर के साल में खूब हिट हुई थी। यह धरम पा जी की ऐसी फिल्म थी, जो लगभग उन्हीं के इशारे पर चलती है। वे एक ऐसा किरदार हैं जो एक सुदूर गाँव में रोमांस करता है, अपना थाना स्थापित करता है, सिपाही भरती करता है और डाकू खलनायक से दो-दो हाथ करता है।

धर्मेन्द्र पर फिल्माया गाना, मैं जट यमला पगला दीवाना, तब का हिट गाना था जो नायिका हेमा मालिनी के लिए उन्होंने गाया था। धर्मेन्द्र के बंगले पर उनको शुभकामनाएँ देने अनिल शर्मा, नीरज पाठक, वीरू देवगन आदि बहुत से कलाकार-फिल्मकार आये थे मगर टिप्पणीकार की निगाह गयी, बड़े शान्त संजीदा बैठे अर्जुन हिंगोरानी पर।

उनको कहा कि 1961 मे दिल भी तेरा हम भी तेरे आपने ही निर्देशित की थी धरम जी के लिए और आज पचास साल हो गये हैं उनको इण्डस्ट्री में। कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि और भी धरम-फिल्मों के निर्देशक अर्जुन हिंगोरानी की धरम जी से अटूट दोस्ती है, चेहरे पर खुशी और गर्व के भाव लाकर कहते हैं वे, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है।

Monday, December 13, 2010

यमला पगला दीवाना

8 दिसंबर को मुंबई में धरम जी के जन्मदिन पर "यमला पगला दीवाना" को लेकर बातचीत हुई। धरम जी कहते हैं कि पिछली बार "अपने" में हमने अपने चाहने वालों को रुलाया था, भावुक कर दिया था मगर वह फिल्म ऐसी थी जिसने एक अटूट और स्नेहिल परिवार के जज्बे को समर्थन किया था। इसीलिए सबने उस फिल्म को सफल भी बनाया था। अपने में मेरे साथ सनी और बॉबी ने भी बहुत अच्छा कम किया था।

अब हम फिर से नए साल में "यमला पगला दीवाना" में आ रहे हैं। यह फिल्म 14 जनवरी को रिलीज़ होगी। इस फिल्म में धमाल है, मस्ती है और हँसने-हँसाने के लिए खूब मनोरंजन। धरम जी का कहना था कि यह फिल्म परिवार के साथ जाकर देखी जा सकती है क्योंकि परिवार की फिल्म है।

"यमला पगला दीवाना" अब से लगभग 35 साल पहले धरम जी की एक सुपरहिट फिल्म "प्रतिज्ञा" के लोकप्रिय गाने "मैं जट यमला पगला दीवाना" से जुड़ती है क्योंकि नाम वहीं से लिया गया है, मगर यह फिल्म हँसने और मनोरंजन करने के साथ ही अपनी ज़मीन, अपनी मिट्टी की पहचान को पाने की बेचैनी को भी बखूबी दिखलाती है..... 

Saturday, November 6, 2010

दीपावली पर धर्मेन्द्र से एक विशेष बातचीत



मेरी अन्तरात्मा
ये मेरे अन्दर एक मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजाघर है जहाँ मेरे ईश्वर, अल्लाह, वाहे गुरु और क्राइस्ट रहते हैं।

अन्तरात्मा से संवाद
अन्तरात्मा मुझसे बात करती है। मुझे रास्ता दिखाती है। अच्छाई-बुराई, नेकी और बदी का अहसास कराती है।

आत्मा भी एक चिराग है
जी हाँ, आत्मा भी एक चिराग है। जब तक भगवान का बसेरा है, ये दीया जलता रहता है।

मैंने देखा है अंधेरा
हाँ, मैंने देखा है अंधेरा। जब इन्सान, इन्सानियत का खून करता है, तब उससे भयानक अंधेरा और क्या हो सकता है? यह अंधेरा, दिन के उजाले में भी हमको देखना पड़ता है।

रोशनी की किरण
जब कोई इन्सान, इन्सानियत के लिए कुछ कर गु$जरता है तो एक रोशनी की एक सुनहरी किरण नजर आती है। तब मन में महसूस होता है उजाला।

जब जलता हुआ दीया देखता हूँ
जब भी मैं जलते हुए दीए को देखता हूँ तो उसे देखकर मन में ख्याल आता है कि ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है मगर है कितनी छोटी सी। इस छोटी सी ज़िंदगी को खुशगवार बनाये रखने के लिए, ज़िंदगी के इस दीए में इन्सानियत का तेल डालते रहो, नेकी की बाती बनाकर उसे अपनी मोहब्बत से रोशन किए रखो।

अंधेरे और उजाले का संघर्ष
पाप और पुण्य की लड़ाई की तरह है अंधेरे और उजाले का संघर्ष।

दिल की दीवाली
बन्दा, जब बन्दे के लिए कुछ कर जाता है तो उस खुशी को महसूस करके मेरा दिल दीवाली मनाता है। मुझे लगता है कि इस दुनिया में हमें एक दूसरे के लिए बेहतर सोचना चाहिए, बेहतर करना चाहिए और सभी को मिलकर एक बेहतर जमाने का ख़्वाब सच करना चाहिए। सबके दिल खुश होंगे तो दिल के दीए एक साथ खुशी से जल उठेंगे, फिर तो दिल की ही दीवाली होगी। दिल मिलकर दीवाली मनाएँगे। मेरा दिल हमेशा ऐसी दीवाली के स्वागत और सत्कार के लिए अपनी उम्मीदों के दरवाजे खोलकर बाँहें फैलाए तैयार है।

अपनों की दुनिया
बन्दा, बन्दे को कभी जिस्मानी, रूहानी या दिमागी या दिली दुख न पहुँचाए और बन्दा, बन्दे की हिम्मत, प्यार, हौसला, इज्ज़त, वकार और प्यार बन जाए तो फिर अपने ही अपने होंगे इस दुनिया में, कोई भी गैऱ नहीं रहेगा।

बचपन की दीवाली
ज़िंदगी की पहली दीवाली की कुछ मद्घम सी यादें हैं जब माँ कोरी माटी के दीए पानी की बाल्टी में डालती थीं। हम सब भाई-बहन मिलकर रुई की बाती बनाते थे। सरसों के तेल का कनस्तर घर में आ जाता और उस रात का बेसब्री से इन्तजार होता जब हम मिलकर दीयों को थाली में रखकर घर की नुमायाँ जगहों को दीयों से सजाने में जुट जाते।  

पटाखे
बचपन में तो खूब चलाये तरह-तरह के पटाखे लेकिन अब लगता है कि पटाखों से पर्यावरण और आबोहवा को कितना नुकसान पहुँचता है। बचपन में तो हर पटाखा अच्छा लगता था, पटाखा क्या हर चीज अच्छी लगती थी। बच्चों को भी दीवाली का सबसे ज्य़ादा शौक होता है, उसका इन्तजार होता है, मगर जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, बच्चों को भी यह समझाने लगते हैं कि ये मत करो, वो मत करो

एक नया दौर
मेट्रो, अपने, जॉनी गद्दार आदि फिल्मों के बाद जिस तरह की रोशनी सामने न$जर आती है, मेरी अन्तरात्मा मुझे एक तरह से आश्वस्त करती है कि एक नया दौर शुरू हो रहा है मेरे जीवन में। मैं आप सबके लिए भी यह दुआ करता हूँ कि नया साल आपके लिए भी बेपनाह खुशियाँ लाये। हम सबका जीवन खुशगवार हो। रोज-रोज की घटना-दुर्घटनाएँ खत्म हो जाएँ। सारी दुनिया में अमन, सुकून हो जाए। सारी दुनिया बन जाये एक कुनबा, ऐसी हसरतों का कुछ अरमान है मेरा।

कोई शेर......
दुआ ए दिल मेरी हर दिल से अदा हो जाए
मोहब्बत, फ़कत मोहब्बत मजहब ए बशर हो जाए
दिल ए जहाँ से मिट जाएँ सरहदों की खऱाशें
वतन, हर वतन का मालिक सारा जहाँ हो जाए
यही चाहता है धर्मेन्द्र आपका। ऐसा हो जाए, तो क्या हो जाए, सोचिए! धर्मेन्द्र की यही हसरत है। हम भला ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कर सकते हैं। कर सके, तो देखिए, दुनिया क्या की क्या हो जायेगी! 

Tuesday, November 2, 2010

यमला पगला दीवाना

धर्मेन्द्र के बारे में यह भी एक सचाई है कि एक बार सफलता की शुरूआत के बाद से धर्मेन्द्र का ग्राफ कभी प्रभावित नहीं हुआ। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वे किसी भी समय की सितारा दौड़, गलाकाट या राजनीति से दूर ही रहे। वे कहते हैं कि मैं इस भयानक दौड़ से अपने को दूर रखता हूँ। यह दौड़ आपसी रिश्तों को भी खराब कर देती है। मेरी अपनी मान्यता यही है कि मैं हमेशा हरदम अपनी जगह पर ही हूँ। मेरी फिल्म चाहे कितने भी अन्तराल के बाद आये, मुझे ऐसे समय मेरे लिए दी जाने वाली, वापसी वाली उपमा या विशेषण बिल्कुल पसन्द नहीं है। मेरा अपना मानना तो यही है कि मैं कहीं गया ही नही हूँ तो वापसी कैसी? धर्मेन्द्र सबसे बड़ा विश्वास अपने काम पर रहा है। दूसरा विश्वास वे अपने प्रशंसकों पर करते रहे हैं।

अपने चाहने वालों को भगवान का दरजा देने वाले धर्मेन्द्र कहते भी हैं कि वे आज जो कुछ भी हैं, अपने चाहने वालों की वजह से ही हैं। चाहने वालों ने ही उनको यह जगह बख्शी है, नहीं तो लगातार लगभग पचास साल होते हुए आये, वही प्यार, वही सम्मान कहाँ मिलता। धर्मेन्द्र कहते हैं कि एक सच्चे कलाकार के मुरीद की कोई जात-बिरादरी नहीं होती। मेरे चाहने वालों की भी कोई जात-बिरादरी नहीं है। जो मेरी फिल्में इतनी रुचि और चाव से देखते हैं, जो हर शहर में मेरे लिए पलक पाँवड़े बिछाए मेरा इस्तकबाल करने के लिए धूप, आंधी, पानी और बरसात की परवाह नहीं करते, उनके प्यार का बदला तो कभी भी मैं चुका नहीं पाऊँगा। ये वे ही चाहने वाले हैं जिन्होंने मुझे ही नहीं मेरे बेटों सनी और बॉबी को भी वही प्यार दिया है। मैं तो इन बच्चों से कहता हूँ कि बेटे इनको हमेशा तवज्जो दो। इनके दिल को खुशी मिले वो करो।

दूर-दूर से लोग कितने आशाएँ और उम्मीदों के साथ केवल एक बार चेहरा देखने, हाथ मिलाने, पास खड़े होने के लिए भीड़ में, परेशानियों में तमाम तरह के संघर्ष करके मिलने आते हैं, उनको उनका चाहा प्यार दे दिया तो समझ लो, हमारा कलाकार होना सार्थक है। जब धरम जी चेहरे पर भरपूर मुस्कराहट और गर्व के भाव से कहते हैं कि आज तो क्या कभी भी मैं अपने चाहने वालों का दिल नहीं तोड़ सकता, तो उनके चेहरे पर पारदर्शिता, नैतिकता और स्वच्छता अपनी भरपूर चमक के साथ प्रकट होती है।

लगभग दो सौ से अधिक फिल्मों के माध्यम से धर्मेन्द्र ने न जाने कितने ही किरदारों को परदे पर साकार किया है। दर्शकों के बीच उनके सभी किरदार अपने-अपने ढंग से प्रतिष्ठिïत हैं। साठ से लेकर अस्सी के दशक तक उनकी फिल्मों की आवाजाही द्रुत गति से बनी रही। बहुत सारी फिल्मों में उन्होंने कई चेहरे, कई प्रवृत्तियों को जिया। खास बात यह रही कि उनको हमेशा पसन्द किया गया। रामानंद सागर की फिल्म आँखें ने उनको इण्डियन जेम्स बॉण्ड के रूप में पहचान दी। रूमानी किरदार, बुरा आदमी, कानून का रक्षक, सच्चा और स्वाभिमानी चरित्र, बॉक्सर, फाइटर टाइप के चरित्र हों या इसके अलावा कुछ और, धर्मेन्द्र सभी मे प्रभावशाली ही नजर आये। कॉमेडी में धर्मेन्द्र कुछ अलग ही रेंज के आदमी दिखायी पड़ते हैं जिसका उदाहरण तुम हसीं मैं जवाँ, प्रतिज्ञा, चाचा- भतीजा, गजब, शोले, चुपके-चुपके, नौकर बीवी का जैसी फिल्में हैं।

एक खास बात और देखने में आती है और वह यह है कि फिल्म के मुख्य किरदार से इतर बदले भेस वाले साधु बाबा या दाढ़ी- मूँछ लगाकर धरम जी जिस तरह की कॉमेडी करते हैं, वह अत्यन्त अनूठी, सर्वोत्तम और दिलचस्प लगती है। उदाहरण के लिए मेरा गाँव मेरा देश, चरस, चाचा-भतीजा आदि फिल्मों को यहाँ पर याद किया जा सकता है।   शोले तो बीसवीं सदी की एक सबसे अहम फिल्म है, जिसका धर्मेन्द्र भी एक अहम हिस्सा हैं। हम जरा याद करे इस बड़ी फिल्म के तमाम बड़े सितारों को - संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, हेमा माालिनी, जया बच्चन, अमजद खान, इन सबके बीच यदि वीरू बने धर्मेन्द्र को माइनस कर दें तेा शोले का क्या अस्तित्व है़?

धर्मेन्द्र भारतीय सिनेमा में एक यशस्वी उपस्थिति हैं। एक बड़े कैनवास में अपनी रेखांकित करने योग्य जगह बनाने वाला सदाबहार सितारा हैं वे। लगभग दस वर्ष हुए, उनको फिल्म फेअर ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया था। एक लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड उनको पूना में पिफ की ओर से कुछ दिन पहले मिला। एक लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड उनको आइफा ने दिया है।  मेट्रो फिल्म में अपनी विशेष भूमिका से धरम जी चर्चा में आये मगर जून के आखिरी सप्ताह में रिली$ज फिल्म अपने ने जिस तरह से देश भर में इस महानायक का स्वागत किया है, वह उल्लेखनीय है। एक बॉक्सर पिता-पुत्रों की कहानी को दर्शकों ने बेहद पसन्द किया है। हिन्दी सिनेमा में धर्मेन्द्र की छवि बेशक मारधाड़ वाले हीरो की, रोमांटिक हीरो की बनी और खूब सफल भी रही मगर भावप्रवण भूमिकाओं में वे जिस प्रकार अपनी जगह बनाते हैं वो रेखांकित किए जाने योग्य है। एक लम्बे समय बाद उनको इस तरह की भूमिका करने का अवसर मिला और उन्होंने इस भूमिका में अपनी रेंज दिखायी।

इस समय वे कुछ फिल्मों में एक साथ सक्रिय हुए हैं जिनमें उनके घर की एक कॉमेडी फिल्म यमला पगला दीवाना है। फिल्म में उनके साथ बॉबी और सनी भी हैं। जाहनू बरुआ ने उनको लेकर एक फिल्म हर पल हाल ही में पूरी की है।
                       

Friday, October 29, 2010

पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता से मजबूत धर्मेन्द्र

धर्मेन्द्र की फिल्मोग्राफी बड़ी समृद्ध है। शायद ही ऐसा कोई श्रेष्ठ निर्देशक हो, जिनके साथ उन्होंने काम न किया हो। सीक्वेंस में देखें तो निर्माताओं में, निर्देशकों मे, साथी कलाकारों में, नायिकाओं मे ऐसे अनेक नाम सामने आते हैं जिनके साथ अपने कैरियर में कई बार, अनेक फिल्मों में उन्होंने काम किया। यह निश्चित रूप से धर्मेन्द्र की प्रतिभा और व्यवहार के साथ-साथ व्यावसायिक सुरक्षा के विश्वासों के कारण ही सम्भव हो सका। मोहन कुमार, मोहन सैगल, राज खोसला, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, असित सेन, रमेश सिप्पी, दुलाल गुहा,  जे. पी. दत्ता, अनिल शर्मा, ओ. पी. रल्हन, मनमोहन देसाई, रामानंद सागर, चेतन आनंद, विजय आनंद जैसे कितने ही निर्देशक होंगे जिनके साथ धर्मेन्द्र ने अपने समय की यादगार फिल्में की हैं।

धर्मेन्द्र के कैरियर का शुरूआती दौर बहुत ही विशेष किस्म की अनुकूलता का माना जाता है। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने समय की श्रेष्ठï नायिकाओं के साथ अनेक खास फिल्मों में काम किया। लेकिन इस दौर में जिन नायिकाओं के साथ उनकी शुरूआत हुई, उनके साथ आगे काम करने के लगातार मौके आये। जैसे नूतन के साथ बन्दिनी मे, माला सिन्हा के साथ आँखें, अनपढ़ में, मीना कुमारी के साथ चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल, मझली दीदी, फूल और पत्थर, मैं भी लडक़ी हूँ, काजल में, प्रिया राजवंश के साथ हकीकत में, शर्मिला टैगोर के साथ सत्यकाम, अनुपमा, चुपके चुपके, देवर, मेरे हमदम मेरे दोस्त मे, नंदा के साथ आकाशदीप में, आशा पारेख के साथ आये दिन बहार के, आया सावन झूम के, मेरा गाँव मेरा देश में, राखी के साथ जीवनमृत्यु और ब्लैक मेल में, हेमा मालिनी के साथ नया जमाना, राजा जानी, प्रतिज्ञा, ड्रीम गर्ल, चाचा भतीजा, शोले, चरस, जुगनू, सीता और गीता, दोस्त, तुम हसीं मैं जवाँ, द बर्निंग ट्रेन, दिल्लगी, बगावत, रजिया सुल्तान में, सायरा बानो के साथ रेशम की डोरी, आयी मिलन की बेला, ज्वार भाटा में, वहीदा रहमान के साथ खामोशी, फागुन में, सुचित्रा सेन के साथ ममता में, रेखा के साथ झूठा सच, गजब, कहानी किस्मत की, कर्तव्य में उनकी जोडिय़ाँ बड़ी अनुकूल और परफेक्ट भी प्रतीत होती हैं।

एक्शन फिल्मों में धर्मेन्द्र की उपस्थिति दर्शकों के लिए एक बड़े सम्बल का सबब बनती है। आम आदमी के जेहन में एक आदर्श नायक की जो छवि होती है उसे धर्मेन्द्र सबसे ज्यादा सार्थक ढंग से परदे पर प्रस्तुत करते हैं। वे पुलिस अधिकारी बनें या डॉन, चोर बनें या डाकू, सी. बी. आई. अधिकारी बनें या सेना के जवान सभी में अपना गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। उनकी सिनेमा में सफलता का कारण ही यही रहा है कि उनको दर्शकों ने हर रूप में स्वीकारा है।

धर्मेन्द्र से समय-समय पर अनेक मुलाकातों में उनकी कई फिल्मों को लेकर चर्चा हुई है। अक्सर चर्चाओं में यह बात साबित हुई है कि उन तमाम फिल्मों में जिसमें उन्होंने संवेदनशील किरदार किए हैं, वे किरदार उनकी आत्मा से बड़े गहरे जुड़ गये हैं। उनसे अक्सर गुलामी, हथियार, समाधि, नौकर बीवी का आदि फिल्मों की चर्चा करना दिलचस्प रहा है। त्यागी, अपनों से मिलने वाले दुख को बर्दाश्त करने, गरीबों, कमजोरों और मजलूमों की लड़ाई लडऩे वाले किरदारों में वे अपने आपको गहरे इन्वाल्व कर लेते हैं। ऐसा साफ लगता है कि पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता सा मजबूत और सम्मोहक दिखायी पडऩे वाला यह इन्सान हृदय से अत्यन्त कोमल, भावुक और निर्मल है।

Thursday, October 21, 2010

धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव

अपनी पहली फिल्म मे ही धर्मेन्द्र ने जिस तरह की अपनी पहचान स्थापित की, वह दीर्घस्थायी हुई। दिलचस्प बात यह भी रही कि अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र की दोस्ती बड़ी मजबूती के साथ स्थापित हुई। उस समय की एक अहम फिल्म शोला और शबनम में भी धर्मेन्द्र को अर्जुन हिंगोरानी ने ही निर्देशित किया था। यह फिल्म सशक्त कहानी, जज्बाती फलसफ़े और मधुर गीत-संगीत की वजह से काफी सफल रही थी। अर्जुन हिंगोरानी ने फिर अपनी हर फिल्म में उनको नायक लिया, जैसे कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि तमाम फिल्में। आज भी यह दोस्ती वैसी ही है।

मैं 8 दिसम्बर को धरम जी के ऐसे कई जन्मदिवसों का प्रत्यक्षदर्शी हूँ जिसमें अर्जुन हिंगारोनी उनसे मिलने आये, और जिस प्यार और यार के ढंग से बातें होते हुए सुनों तो सुखद विस्मय ही होता है। अर्जुन हिंगोरानी कहते हैं, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है। उस जैसा एक्टर, उस जैसा इन्सान आज मिलना मुश्किल है। उसमें असाधारण प्रतिभा है जिसका इस्तेमाल तो अभी हुआ भी नहीं है। उस जैसा इन्सान हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में मौजूद रहता है। यह वाकई सच बात है।

भारतीय सिनेमा में धर्मेन्द्र के व्यक्तित्व की स्थापना देखा जाये तो स्वयंसिद्घा प्रतिभा की स्थापना है। धर्मेन्द्र फिल्म जगत में सपने और उम्मीदें लेकर आये थे। उनका कोई गॉड फादर यहाँ नहीं था जो उनके लिए सिफारिश करता। उनको शुरूआत में जिस तरह का संघर्ष करना पड़ा, वो कम नहीं है। जब भी वे थक-हारकर निराश होते थे तो उनको अपनी माँ की उम्मीदों से भरी आँखें याद आ जाती थीं। यही स्मरण उनको एक बार फिर संघर्ष के लिए स्फूर्त कर देता था। अपने लम्बे संघर्ष मे धर्मेन्द्र ने सिनेमा के पूरे जगत को बहुत धीरज के साथ देखा और परखा।

ऐसे कई निर्देशक थे जो आगे चलकर धर्मेन्द्र के शरणागत हुए मगर संघर्ष के वक्त उनका रुख कुछ दूसरा ही होता था। जिस फूल और पत्थर फिल्म ने समकालीन परिदृश्य में धर्मेन्द्र की दुनिया को एक रात में बदल देने का काम किया था, उस फिल्म के निर्देशक से ही धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव रहे मगर बड़े दिल के धर्मेन्द्र ने आगे भी किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया। इस फिल्म का वो शॉट सबसे ज्यादा प्रशंसनीय और मानवीर होकर उभरा था जिसमें नशे से लबालब नायक अपने घर लौटता है तो बाहर पेड़ के नीचे उसको जानने-पहचानने वाली बूढ़ी औरत बरसात और ठंड से ठिठुरती नजर आती है। यह हीरो कुछ पल को वहाँ ठिठकता है और फिर अपनी कमीज उतारकर उस बुढ़ी औरत के ऊपर डालकर लडख़ड़ाते कदमों से घर की ओर बढ़ जाता है। इस एक दृश्य ने इस महानायक के मानवीय पहलू को ही एक तरह से रेखांकित किया था। अपनी जिन्दगी में ऐसी मानवताएँ धर्मेन्द्र ने कई बार व्यक्त की हैं।

दरअसल धर्मेन्द्र शख्सियत ही उस तरह की है, जिनके सामने हर वो आदमी गहरे प्रायश्चित की मुद्रा में नतमस्तक हुआ है जिसे किसी जमाने में धर्मेन्द्र के आने वाले कल का अन्दाजा ही नहीं था। धर्मेन्द्र अपने बड़े से कमरे में सामने दीवार पर लगी माँ की तस्वीर देखकर भावुक होकर बताते हैं कि सफलता के बाद पंजाब से माँ जब बम्बई पहली बार मेरे पास आयीं तो रेल से उतरने के बाद उन्होंने मेरी फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टर देखे तो मारे खुशी के उनके आँसू निकल आये और मूच्र्छा भी आ गयी। बाद मे उन्होंने जिस तरह से मुझे प्यार दिया, उसे बता पाना कठिन है। अपने पिता से खूब डरने के बावजूद धर्मेन्द्र उनका बहुत आदर करते रहे हैं। फिल्म के बारे मे उनसे बात करना तो दूर, सोचना तक धर्मेन्द्र के लिए तब सम्भव नहीं था।

वे बतलाते हैं कि बचपन से ही वे अपने पिता के पैर घण्टों दबाया करते थे। देर तक दबाते हुए थक जाता था तब भी वे नहीं कहते थे कि बस हुआ। बाद में जब बम्बई आ गया तो वह अवसर ही जाता रहा। फिर पिताजी जब बम्बई आये तक मैं पाँच-पाँच शिफ्टों में काम कर रहा था। देर रात अक्सर घर लौटता था, कई बार सुबह देर तक सोया करता। ऐसे ही एक दिन देर रात शूटिंग से लौटा, तो उस समय हल्की सी ले रखी थी। पिताजी के कमरे के सामने से निकला, तो न जाने कैसे पैर दबाने की याद हो आयी। मैं वैसे ही धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ चला और पलंग पर उनके पैर के पास बैठकर पैर दबाने लगा। पिताजी उस समय जाग रहे थे। मुझे पैर दबाता देख, वे बोले, अगर तेरे को पीने के बाद पैर दबाने की याद आती है तो रोज पिया कर.........।

Saturday, October 16, 2010

जिद के पक्के धर्मेन्द्र

अरजी भेजने के बाद धर्मेन्द्र उस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें बुलाया जाता। समय गुजरता रहा। उनके हिसाब से तो यह काम तुरन्त ही हो जाना था मगर देश भर से आवेदन बुलाये गये थे। कई स्तरों पर बायोडेटा छाँटे भी गये मगर यह किस्मत की कहानी ही कह सकते हैं कि अन्तिम रूप से बुलाए जाने के लिए चयनित नामों में धर्मेन्द्र का नाम भी शामिल था।

वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर मुम्बई आये। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्तजाम के साथ बुलाया गया था। फिल्म फेयर कलाकार की खोज कॉन्टेस्ट मे उनका आना और चयनित होना भी सचमुच माँ के आशीर्वाद का ही नतीजा था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है।

चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र की पर्सनैलिटी कसरती जवान की सी थी। चीते के पंजे की तरह उनके हाथ, चौड़ा सीना, सख्त और सम्मोहन मसल्स और मछलियाँ देखकर दबी जुबान से लोग उन्हें पहलवानी का परामर्श भी देते थे। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था, कि अब आ गया हूँ तो वापस नहीं जाऊँगा, यहीं कुछ करके दिखाऊँगा।

ऐसे ही स्टुडियो के चक्कर लगाते, यहाँ से वहाँ आते-जाते उन्हें कई बार अर्जुन हिंगोरानी टकरा जाया करते थे। तब वे भी हीरो बनने के लिए प्रयास कर रहे थे। अर्जुन हिंगोरानी से बार-बार आमना-सामना होने से एक दूसरे से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ, फिर दोस्ती हो गयी। दोनो अपने संघर्ष और किस्से आपस में बाँटा करते। एक बार अर्जुन हिंगोरानी ने धर्मेन्द्र से कहा, यदि मैं हीरो न बन पाया तो फिल्म बनाना शुरू कर दूँगा और यदि मैं फिल्म बनाऊँगा तो हीरो तुम्हें ही लूँगा।

समय और संयोग अपनी रफ्तार से जैसे इसी योग की तरफ प्रवृत्त हो रहे थे। एज ए हीरो, अर्जुन को फिल्में नहीं मिली और वे निर्माता-निर्देशक बन गये। उन्होंने पहली फिल्म शुरू की दिल भी तेरा, हम भी तेरे। अर्जुन ने अपने वचन का पालन अपने दोस्त से किया और धर्र्मेन्द्र को हीरो के रूप में साइन किया। उस समय साइनिंग अमाउंट इक्यावन रुपए था और साथ में थीं, चाय, नाश्ते की सुविधाएँ। यह फिल्म बनी और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को मिली सफलता ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे सितारे की आमद की थी जो अपनी पूरी शख्सियत में नितान्त नैतिक, विश्वसनीय और अपना सा नजर आता था।

पहले से ही तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति में यदि धर्मेन्द्र ने दर्शकों को प्रभावित किया तो उसके पीछे उनकी इसी छबि, इसी पर्सनैलिटी का योगदान था। परदे पर किरदार निबाहते हुए उनका संवाद बोलना, हँसना-मुस्कराना और विशेष रूप से रूमानी दृश्यों में अपनी आँखों के सम्मोहक इस्तेमाल को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया। उन पर फिल्माए गीतों में उनको अभिनय करते देखना, उनका गाते हुए चलना या कह लें चलते हुए गाना एक अलग ही किस्म के रोमांटिसिज्म को स्थापित करने मे सफल होता था।

Wednesday, September 29, 2010

भावुक और संवेदनशील इन्सान

जुहू का उनका बंगला, प्लॉट नम्बर बाइस, रोड नम्बर ग्यारह।
यहाँ आते हुए शायद बारह से अधिक साल हो गये होंगे, जितना स्नेह और प्यार मिला, हमेशा यही लगा कि अपने पिता से मिलना हो रहा है। सच कहूँ, शायद ऐसा कोई फीता आज तक न बना होगा जो धरम जी का दिल नाप सके, ऐसा विशाल हृदय है उनका। जब पहली बार मिलना हुआ था तो उस बड़े से कमरे में दिल धडक़-धडक़ कर जैसे बाहर आ जाना चाह रहा था। व्याकुलता हो रही थी। कल्पना हो रही थी, किस तरह एकदम से आयेंगे, कैसे मिलेंगे, क्या कहेंगे, वगैरह वगैरह।

राजा जानी, जुगनू, हुकूमत, शोले आदि तमाम फिल्मों की ट्राफियाँ और स्मृति चिन्ह को देख-देखकर मुग्धता बढ़ रही थी। मन उस पदचाप को सुनने को बेताब हो रहा था, जो उनकी होगी, जो दरवाजे तक आकर खत्म हो जायेगी और सामने होंगे वे। आखिरकार ऐसा ही हुआ। पदचाप ने ही एकाग्र किया, आहट हुई और वे कमरे मे ऐसे मुस्कराते हुए दाखिल हुए जैसे पहले से पहचान हो। बहुत स्नेह से बातें कीं। बचपन से ही उनका प्रशंसक होने के कारण जितनी जिज्ञासाएँ, जितनी अनुभूतियाँ और जितने इम्प्रेशन मन में थे, सब एक-एक करके कहने के अवसर आये। धरम जी ने सब कुछ तो बताया। उनकी फिल्मों को लेकर, विशिष्टï किरदारों को लेकर, कुछ खास सीन और उनके तेवर को लेकर की गयी बातें उन्हें बहुत अच्छी लगी थीं। जो आत्मीयता उस समय स्थापित हुई उसकी रक्षा ईश्वर आज तक कर रहे हैं। यह सच है, धरम जी बहुत भावुक और संवेदनशील इन्सान हैं।

मायानगरी में लगभग पचास साल अर्थात आधी सदी की लगातार उपस्थिति, यश, समृद्घि, लोकप्रियता और प्यार ने इस भोले और बड़े दिल के आदमी को जरा भी नहीं बदला है। धरम जी एक ऐसे महानायक हैं जो अपने मुरीदों के लिए जान छिडक़ते हैं, उनकी उम्मीदों को कभी नहीं टूटने देते। वे एक ऐसे दरवेश की तरह हैं जिनकी सहृदयता और उपकार के किस्से हजार होंगे मगर दिखावा जरा भी नहीं।

धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म मे उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। कई बार यह भी होता था कि जिस फिल्म को वे पहले देख चुके होते थे, उसको देखने उनके परिवार का कोई सदस्य जाता था, तो उसके साथ भी जाने की जिद करते थे। नहीं ले जाया जाता था, तो पीछे-पीछे चलने लगते थे। आखिरकार ले जाये जाते थे।

उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। सिनेमा हॉल के भीतर फिल्म प्रदर्शन की जादूगरी बचपन में उनके भीतर कौतुहल पैदा करती। वे सोचते थे कि कैसे एक जगह से रोशनी निकलकर परदे पर गिरती है और तमाम लोग चलते-फिरते दिखायी देने लगते हैं। ऐसी पहेलियों और जिज्ञासाओं ने धर्मेन्द्र के मन में फिल्मों के प्रति आकर्षण को काफी बढ़ाने का काम किया।

धर्मेन्द्र आजादी के पहले जन्मे थे। बचपन में प्रभात फेरियों में जाना उनको खूब याद है। उनके पिता केवल कृष्ण देओल कट्टïर आर्य समाजी थे, सख्त भी। वे अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। जो बात भी उनको कहनी होती वाया माँ ही कहते थे। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। उनकी बात करते हुए धर्मेन्द्र बहुत भावुक हो जाते हैं। वे बतलाते हैं कि माँ से मैं अक्सर अपने इस सपने के बारे में कहता था कि मुझे फिल्मों में काम करना है, हीरो बनना है।

उस समय मैं अभिनेता श्याम और दिलीप कुमार का बड़ा फैन था। भोली भाली माँ तब अक्सर मुझसे कह दिया करती, बेटा अरजी भेज दे। अब माँ को क्या पता कि यह काम अरजी भेजकर नहीं मिलता, लेकिन उनके नितान्त भोलेपन के पीछे की सद्इच्छा और आशीर्वाद ने ही मुझे प्रेरित किया। मैं तब अक्सर पास के रेल्वे स्टेशन पैदल जाकर फिल्म फेयर ले आया करता था। उसमें फिल्मी सितारों के चेहरे देखकर रोमांचित हुआ करता था।

एक बार एक अंक में नये सितारों की जरूरत का विज्ञापन निकला था और उसमें नये चेहरों की आवश्यकता का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। मेरे एक मित्र ने मुझे वो फिल्म फेयर लाकर दिया था। जब उसने यह बात बतायी तो एकबारगी मन को लगा जैसे माँ का कहा ही सच होने जा रहा है। मैंने माँ के ही आशीर्वाद से तब अपनी अरजी भेज दी थी।

धरम जी के चाहने वालों से......

 
यह ब्लॉग धरम जी के चाहने वालों के लिए आरम्भ किया गया है.
 
ऐसे सभी दर्शकों का स्वागत है, जो पिछले पाँच दशक से उस सितारे को अपने दिल में जगह दिए हुए हैं, जो भारतीय सिनेमा के महानायक के रूप में अपनी विराट मगर विनम्र उपस्थिति से अपने स्नेहिल दर्शकों के लिए हर वक़्त दिल के दरवाजे खुले रखता है.
 
धर्मेन्द्र वो कलाकार हैं, जिनकी शख्सियत में एक आदर्श हिन्दुस्तानी की छबि नज़र आती है.
 
ऐसे ही मर्द सितारे को हम जल्द ही दो महत्वपूर्ण फिल्मों में शीघ्र देखेंगे जिसकी शूटिंग वे इन दिनों लगातार कर रहे हैं.
 
ये फ़िल्में हैं - "यमला पगला दीवाना" और "टेल मी ओ खुदा".
 
 
आपसे अनुरोध है, यहाँ जब मन और मोहलत हो, आया कीजिये, यकीनन, धरम जी के बारे में बहुत कुछ जानने के मौके रहेंगे.
 
आपको निमंत्रण है, आपका स्वागत है.....