Friday, October 29, 2010

पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता से मजबूत धर्मेन्द्र

धर्मेन्द्र की फिल्मोग्राफी बड़ी समृद्ध है। शायद ही ऐसा कोई श्रेष्ठ निर्देशक हो, जिनके साथ उन्होंने काम न किया हो। सीक्वेंस में देखें तो निर्माताओं में, निर्देशकों मे, साथी कलाकारों में, नायिकाओं मे ऐसे अनेक नाम सामने आते हैं जिनके साथ अपने कैरियर में कई बार, अनेक फिल्मों में उन्होंने काम किया। यह निश्चित रूप से धर्मेन्द्र की प्रतिभा और व्यवहार के साथ-साथ व्यावसायिक सुरक्षा के विश्वासों के कारण ही सम्भव हो सका। मोहन कुमार, मोहन सैगल, राज खोसला, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, असित सेन, रमेश सिप्पी, दुलाल गुहा,  जे. पी. दत्ता, अनिल शर्मा, ओ. पी. रल्हन, मनमोहन देसाई, रामानंद सागर, चेतन आनंद, विजय आनंद जैसे कितने ही निर्देशक होंगे जिनके साथ धर्मेन्द्र ने अपने समय की यादगार फिल्में की हैं।

धर्मेन्द्र के कैरियर का शुरूआती दौर बहुत ही विशेष किस्म की अनुकूलता का माना जाता है। यह वह दौर था जब उन्होंने अपने समय की श्रेष्ठï नायिकाओं के साथ अनेक खास फिल्मों में काम किया। लेकिन इस दौर में जिन नायिकाओं के साथ उनकी शुरूआत हुई, उनके साथ आगे काम करने के लगातार मौके आये। जैसे नूतन के साथ बन्दिनी मे, माला सिन्हा के साथ आँखें, अनपढ़ में, मीना कुमारी के साथ चन्दन का पालना, बहारों की मंजिल, मझली दीदी, फूल और पत्थर, मैं भी लडक़ी हूँ, काजल में, प्रिया राजवंश के साथ हकीकत में, शर्मिला टैगोर के साथ सत्यकाम, अनुपमा, चुपके चुपके, देवर, मेरे हमदम मेरे दोस्त मे, नंदा के साथ आकाशदीप में, आशा पारेख के साथ आये दिन बहार के, आया सावन झूम के, मेरा गाँव मेरा देश में, राखी के साथ जीवनमृत्यु और ब्लैक मेल में, हेमा मालिनी के साथ नया जमाना, राजा जानी, प्रतिज्ञा, ड्रीम गर्ल, चाचा भतीजा, शोले, चरस, जुगनू, सीता और गीता, दोस्त, तुम हसीं मैं जवाँ, द बर्निंग ट्रेन, दिल्लगी, बगावत, रजिया सुल्तान में, सायरा बानो के साथ रेशम की डोरी, आयी मिलन की बेला, ज्वार भाटा में, वहीदा रहमान के साथ खामोशी, फागुन में, सुचित्रा सेन के साथ ममता में, रेखा के साथ झूठा सच, गजब, कहानी किस्मत की, कर्तव्य में उनकी जोडिय़ाँ बड़ी अनुकूल और परफेक्ट भी प्रतीत होती हैं।

एक्शन फिल्मों में धर्मेन्द्र की उपस्थिति दर्शकों के लिए एक बड़े सम्बल का सबब बनती है। आम आदमी के जेहन में एक आदर्श नायक की जो छवि होती है उसे धर्मेन्द्र सबसे ज्यादा सार्थक ढंग से परदे पर प्रस्तुत करते हैं। वे पुलिस अधिकारी बनें या डॉन, चोर बनें या डाकू, सी. बी. आई. अधिकारी बनें या सेना के जवान सभी में अपना गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। उनकी सिनेमा में सफलता का कारण ही यही रहा है कि उनको दर्शकों ने हर रूप में स्वीकारा है।

धर्मेन्द्र से समय-समय पर अनेक मुलाकातों में उनकी कई फिल्मों को लेकर चर्चा हुई है। अक्सर चर्चाओं में यह बात साबित हुई है कि उन तमाम फिल्मों में जिसमें उन्होंने संवेदनशील किरदार किए हैं, वे किरदार उनकी आत्मा से बड़े गहरे जुड़ गये हैं। उनसे अक्सर गुलामी, हथियार, समाधि, नौकर बीवी का आदि फिल्मों की चर्चा करना दिलचस्प रहा है। त्यागी, अपनों से मिलने वाले दुख को बर्दाश्त करने, गरीबों, कमजोरों और मजलूमों की लड़ाई लडऩे वाले किरदारों में वे अपने आपको गहरे इन्वाल्व कर लेते हैं। ऐसा साफ लगता है कि पर्सनैलिटी में ग्रीक देवता सा मजबूत और सम्मोहक दिखायी पडऩे वाला यह इन्सान हृदय से अत्यन्त कोमल, भावुक और निर्मल है।

Thursday, October 21, 2010

धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव

अपनी पहली फिल्म मे ही धर्मेन्द्र ने जिस तरह की अपनी पहचान स्थापित की, वह दीर्घस्थायी हुई। दिलचस्प बात यह भी रही कि अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र की दोस्ती बड़ी मजबूती के साथ स्थापित हुई। उस समय की एक अहम फिल्म शोला और शबनम में भी धर्मेन्द्र को अर्जुन हिंगोरानी ने ही निर्देशित किया था। यह फिल्म सशक्त कहानी, जज्बाती फलसफ़े और मधुर गीत-संगीत की वजह से काफी सफल रही थी। अर्जुन हिंगोरानी ने फिर अपनी हर फिल्म में उनको नायक लिया, जैसे कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि तमाम फिल्में। आज भी यह दोस्ती वैसी ही है।

मैं 8 दिसम्बर को धरम जी के ऐसे कई जन्मदिवसों का प्रत्यक्षदर्शी हूँ जिसमें अर्जुन हिंगारोनी उनसे मिलने आये, और जिस प्यार और यार के ढंग से बातें होते हुए सुनों तो सुखद विस्मय ही होता है। अर्जुन हिंगोरानी कहते हैं, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है। उस जैसा एक्टर, उस जैसा इन्सान आज मिलना मुश्किल है। उसमें असाधारण प्रतिभा है जिसका इस्तेमाल तो अभी हुआ भी नहीं है। उस जैसा इन्सान हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में मौजूद रहता है। यह वाकई सच बात है।

भारतीय सिनेमा में धर्मेन्द्र के व्यक्तित्व की स्थापना देखा जाये तो स्वयंसिद्घा प्रतिभा की स्थापना है। धर्मेन्द्र फिल्म जगत में सपने और उम्मीदें लेकर आये थे। उनका कोई गॉड फादर यहाँ नहीं था जो उनके लिए सिफारिश करता। उनको शुरूआत में जिस तरह का संघर्ष करना पड़ा, वो कम नहीं है। जब भी वे थक-हारकर निराश होते थे तो उनको अपनी माँ की उम्मीदों से भरी आँखें याद आ जाती थीं। यही स्मरण उनको एक बार फिर संघर्ष के लिए स्फूर्त कर देता था। अपने लम्बे संघर्ष मे धर्मेन्द्र ने सिनेमा के पूरे जगत को बहुत धीरज के साथ देखा और परखा।

ऐसे कई निर्देशक थे जो आगे चलकर धर्मेन्द्र के शरणागत हुए मगर संघर्ष के वक्त उनका रुख कुछ दूसरा ही होता था। जिस फूल और पत्थर फिल्म ने समकालीन परिदृश्य में धर्मेन्द्र की दुनिया को एक रात में बदल देने का काम किया था, उस फिल्म के निर्देशक से ही धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव रहे मगर बड़े दिल के धर्मेन्द्र ने आगे भी किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया। इस फिल्म का वो शॉट सबसे ज्यादा प्रशंसनीय और मानवीर होकर उभरा था जिसमें नशे से लबालब नायक अपने घर लौटता है तो बाहर पेड़ के नीचे उसको जानने-पहचानने वाली बूढ़ी औरत बरसात और ठंड से ठिठुरती नजर आती है। यह हीरो कुछ पल को वहाँ ठिठकता है और फिर अपनी कमीज उतारकर उस बुढ़ी औरत के ऊपर डालकर लडख़ड़ाते कदमों से घर की ओर बढ़ जाता है। इस एक दृश्य ने इस महानायक के मानवीय पहलू को ही एक तरह से रेखांकित किया था। अपनी जिन्दगी में ऐसी मानवताएँ धर्मेन्द्र ने कई बार व्यक्त की हैं।

दरअसल धर्मेन्द्र शख्सियत ही उस तरह की है, जिनके सामने हर वो आदमी गहरे प्रायश्चित की मुद्रा में नतमस्तक हुआ है जिसे किसी जमाने में धर्मेन्द्र के आने वाले कल का अन्दाजा ही नहीं था। धर्मेन्द्र अपने बड़े से कमरे में सामने दीवार पर लगी माँ की तस्वीर देखकर भावुक होकर बताते हैं कि सफलता के बाद पंजाब से माँ जब बम्बई पहली बार मेरे पास आयीं तो रेल से उतरने के बाद उन्होंने मेरी फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टर देखे तो मारे खुशी के उनके आँसू निकल आये और मूच्र्छा भी आ गयी। बाद मे उन्होंने जिस तरह से मुझे प्यार दिया, उसे बता पाना कठिन है। अपने पिता से खूब डरने के बावजूद धर्मेन्द्र उनका बहुत आदर करते रहे हैं। फिल्म के बारे मे उनसे बात करना तो दूर, सोचना तक धर्मेन्द्र के लिए तब सम्भव नहीं था।

वे बतलाते हैं कि बचपन से ही वे अपने पिता के पैर घण्टों दबाया करते थे। देर तक दबाते हुए थक जाता था तब भी वे नहीं कहते थे कि बस हुआ। बाद में जब बम्बई आ गया तो वह अवसर ही जाता रहा। फिर पिताजी जब बम्बई आये तक मैं पाँच-पाँच शिफ्टों में काम कर रहा था। देर रात अक्सर घर लौटता था, कई बार सुबह देर तक सोया करता। ऐसे ही एक दिन देर रात शूटिंग से लौटा, तो उस समय हल्की सी ले रखी थी। पिताजी के कमरे के सामने से निकला, तो न जाने कैसे पैर दबाने की याद हो आयी। मैं वैसे ही धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ चला और पलंग पर उनके पैर के पास बैठकर पैर दबाने लगा। पिताजी उस समय जाग रहे थे। मुझे पैर दबाता देख, वे बोले, अगर तेरे को पीने के बाद पैर दबाने की याद आती है तो रोज पिया कर.........।

Saturday, October 16, 2010

जिद के पक्के धर्मेन्द्र

अरजी भेजने के बाद धर्मेन्द्र उस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें बुलाया जाता। समय गुजरता रहा। उनके हिसाब से तो यह काम तुरन्त ही हो जाना था मगर देश भर से आवेदन बुलाये गये थे। कई स्तरों पर बायोडेटा छाँटे भी गये मगर यह किस्मत की कहानी ही कह सकते हैं कि अन्तिम रूप से बुलाए जाने के लिए चयनित नामों में धर्मेन्द्र का नाम भी शामिल था।

वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर मुम्बई आये। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्तजाम के साथ बुलाया गया था। फिल्म फेयर कलाकार की खोज कॉन्टेस्ट मे उनका आना और चयनित होना भी सचमुच माँ के आशीर्वाद का ही नतीजा था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है।

चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र की पर्सनैलिटी कसरती जवान की सी थी। चीते के पंजे की तरह उनके हाथ, चौड़ा सीना, सख्त और सम्मोहन मसल्स और मछलियाँ देखकर दबी जुबान से लोग उन्हें पहलवानी का परामर्श भी देते थे। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था, कि अब आ गया हूँ तो वापस नहीं जाऊँगा, यहीं कुछ करके दिखाऊँगा।

ऐसे ही स्टुडियो के चक्कर लगाते, यहाँ से वहाँ आते-जाते उन्हें कई बार अर्जुन हिंगोरानी टकरा जाया करते थे। तब वे भी हीरो बनने के लिए प्रयास कर रहे थे। अर्जुन हिंगोरानी से बार-बार आमना-सामना होने से एक दूसरे से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ, फिर दोस्ती हो गयी। दोनो अपने संघर्ष और किस्से आपस में बाँटा करते। एक बार अर्जुन हिंगोरानी ने धर्मेन्द्र से कहा, यदि मैं हीरो न बन पाया तो फिल्म बनाना शुरू कर दूँगा और यदि मैं फिल्म बनाऊँगा तो हीरो तुम्हें ही लूँगा।

समय और संयोग अपनी रफ्तार से जैसे इसी योग की तरफ प्रवृत्त हो रहे थे। एज ए हीरो, अर्जुन को फिल्में नहीं मिली और वे निर्माता-निर्देशक बन गये। उन्होंने पहली फिल्म शुरू की दिल भी तेरा, हम भी तेरे। अर्जुन ने अपने वचन का पालन अपने दोस्त से किया और धर्र्मेन्द्र को हीरो के रूप में साइन किया। उस समय साइनिंग अमाउंट इक्यावन रुपए था और साथ में थीं, चाय, नाश्ते की सुविधाएँ। यह फिल्म बनी और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को मिली सफलता ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे सितारे की आमद की थी जो अपनी पूरी शख्सियत में नितान्त नैतिक, विश्वसनीय और अपना सा नजर आता था।

पहले से ही तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति में यदि धर्मेन्द्र ने दर्शकों को प्रभावित किया तो उसके पीछे उनकी इसी छबि, इसी पर्सनैलिटी का योगदान था। परदे पर किरदार निबाहते हुए उनका संवाद बोलना, हँसना-मुस्कराना और विशेष रूप से रूमानी दृश्यों में अपनी आँखों के सम्मोहक इस्तेमाल को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया। उन पर फिल्माए गीतों में उनको अभिनय करते देखना, उनका गाते हुए चलना या कह लें चलते हुए गाना एक अलग ही किस्म के रोमांटिसिज्म को स्थापित करने मे सफल होता था।